Tuesday, 2 August 2011

भू-अधिग्रहण बिल का मसौदा क्या पूर्वाभास देता है


Must read Wall Street journal Report: भारत में भू-बाज़ार त्रुटिपूर्ण है, यहां ज़मीन हासिल करने वालों और ज़मीन के मालिकों के बीच शक्ति (और सूचना) का असंतुलन है...



- मेघा बाहरी
117 साल पुराने भू-अधिग्रहण कानूनों के नवीनीकरण के लिए तैयार किए गए बिल के ताज़ातरीन मसौदे में नए ग्रामीण विकास मंत्री ने अपनी पार्टी के वर्तमान मंत्र-सामाजिक समन्वय पर ध्यान केन्द्रित किया है।
देशकल्याण चौधरी/एफपी/गेटी इमेजेज़
भू-अधिग्रहण भारत में एक विवादपूर्ण मुद्दा बन गया है। ऊपर, पश्चिम बंगाल के कोलकाता में एक नई निर्माणाधीन बस्ती, तस्वीर नवम्बर 2010 की है।
जयराम रमेश ने इस बिल में बहाली और पुनर्वास नीति (आर ऐंड आर) के निरीक्षण का सुझाव दिया है। गौरतलब है कि यह एक ऐसा गरमागरम मुद्दा है, जिसकी वजह से भारत में कई योजनाएं अधर में हैं। इनमें बड़ी कोरियाई कंपनी पॉस्को का उड़ीसा में 12 बिलियन डॉलर की लागत वाले स्टील प्लान्ट और वेदान्त संसाधन द्वारा एक बॉक्साइट खान का विस्तार भी शामिल है। वेदान्त के मालिक मशहूर कारोबारी अनिल अग्रवाल हैं।
अब तक भारतीय कानून पुनर्वास को एक ऐसे कार्यकलाप के रूप में देखता है, जो भू-अधिग्रहण से अलग है। श्री रमेश इस स्थिति को बिल के द्वारा बदलना चाहते हैं। उन्होंने मसौदे में कहा है, “प्रत्येक मामले में आर ऐंड आर (रिसेटलमेंट ऐंड रिहैबिलिटेशन) ज़मीन अधिग्रहण के साथ-साथ किया जाना चाहिए।”  वह कहते हैं, “दोनों का एक ही कानून के अंतर्गत सम्मिश्रण नहीं किए जाने से-आर ऐंड आर औऱ भू अधिग्रहण- बहाली और पुनर्वास की उपेक्षा का खतरा बना रहता है, अब तक का अनुभव यही रहा है।”   
हालांकि यह मंत्रालय का एक निर्भीक कदम है, लेकिन इसे अमल में लाया जाना अभी दूर की कौड़ी नज़र आता है। अगले महीने के आखिरी तक इस मसौदे पर टिप्पणी और प्रतिपुष्टि (फीडबैक) मांगी जा रही है। यहां तक पहुंचने के बावजूद इसके बनने में काफी देरी है। मसौदे में एक अटकाव वाला अहम बिंदु यह था कि सरकार को निजी विकासकों के लिए ज़मीन अधिग्रहित करनी चाहिए या नहीं।
पिछले महीने भारत का सुप्रीम कोर्ट भी इस बहस में कूद पड़ा, उसने उत्तर प्रदेश की राज्य सरकार को दिल्ली से सटे नोएडा में एक प्रोजेक्ट के लिए ज़मीन अधिग्रहण करने हेतु आपातकालीन धारा लगाए जाने के लिए फटकार लगाई। इस धारा की वजह से अपर्याप्त मुआवज़े पर आपत्ति जताने वाले किसान अपनी आवाज़ मुखर तौर पर नहीं उठा पाए। श्री रमेश ने इस मसौदे में इस दुविधा का हल खोज लिया है, क्योंकि मसौदे में इस बात का ज़िक्र है कि सरकार निज़ी उद्देश्यों के लिए जमीन खरीदने की प्रक्रिया में शामिल नहीं होगी।
भू-अधिग्रहण के लिए जब समझौता किया जाता है, तो उचित मुआवज़े को लेकर विवाद एक सामान्य बात है। श्री रमेश इस पहलू पर सभी शंकाओं को दूर करना चाहते हैं। वह कंपनियों से उम्मीद करते हैं कि वो शहरी इलाकों में बाज़ार वाले दामों से दो दफा और ग्रामीण इलाकों में कम से कम छह गुना ज्यादा ज़मीन की कीमत अदा करे।
इसके अतिरिक्त कंपनियों को प्रत्येक परिवार को 12 महीनों तक 3000 रूपए निर्वाह भत्ते के रूप में देना होगा। इसके अलावा प्रत्येक परिवार को 20 सालों तक हर महीने 2000 रूपए का वार्षिक भत्ता भी देना होगा वो भी मुद्रास्फिति के उपयुक्त सूचकांक के साथ। जिनकी ज़मीन का अधिग्रहण किया जा रहा है अगर उनका घर नहीं रहता. तो मसौदा इसके लिए भी प्रावधान की ज़रूरत बताता है, जिसके तहत जिसकी ज़मीन अधिग्रहित की गई है, अगर वो शहरी इलाके में रहता हो तो उसके लिए 50 स्क्वैयर मीटर में एक बना-बनाया घर और जो ग्रामीण इलाके में रहता हो तो उसके लिए 150 स्क्वैयर मीटर वाला घर। अगर ज़मीन का अधिग्रहण शहरीकरण के लिए किया जा रहा है, तो विकसित ज़मीन का 20 फीसदी ज़मीन के मौलिक लोगों के लिए आरक्षित रखा जाएगा और उन्हें उनकी अधिग्रहित ज़मीन के अनुपात में ज़मीन प्रदान की जाएगी।
जिस तारीख को ज़मीन अधिग्रहित की गई है उस तारीख से 10 साल के भीतर ज़मीन का जब कभी हस्तांतरण किया जाएगा, तो उसकी लागत का 20 फीसदी असल मालिक के साथ बांटा जाएगा। मसौदे के तहत जो परिवार भू-अधिग्रहण से प्रभावित हुए हैं, उनके घर के प्रत्येक सदस्य के लिए नौकरी का भी प्रावधान है। अगर नौकरी नहीं दी जाती, तो प्रत्येक परिवार को 200,000 रूपए दिए जाने की भी वकालत की गई है।
जहां कहीं भी इन परिवारों को फिर से बसाया जाएगा, उस क्षेत्र में विद्यालय, खेल के मैदान, स्वास्थ्य केन्द्र, सड़कें और बिजली के कनेक्शन के अलावा स्वच्छ पानी का विश्वसनीय स्त्रोत भी उपलब्ध कराना ज़रूरी होगा।
सबसे ज़रूरी बात यह है कि किसी भी ज़मीन की बिक्री के लिए वहां रह रहे कम से कम 80 फीसदी परिवारों की सहमति ज़रूरी होगी।
भारत में औद्योगिक विकास के लिए भू-अधिग्रहण एक बड़ी बाधा है। बिल का मसौदा अगर कभी कानून बन पाया, तो इससे उस औद्योगिकीकरण को तुरंत प्रारंभ किया जा सकेगा, जिसे अर्थशास्त्री भारत के विकास को बनाए रखने के लिए ज़रूरी बताते हैं। यह अब व्यापक तौर पर सेवाओं की तरफ तिरछा हो गया है, जबकि कृषि लगातार बड़ी मात्रा में भारतीयों को रोज़गार उपलब्ध करा रही है।
यह भारत के बारे में उस बड़ी भ्रांति पर भी लगाम लगा देगा, जिसके मुताबिक लोकतंत्र विकास के रास्ते में खड़ा हो जाता है। भारत के समर्थक अकसर इस संदर्भ में इस बात का हवाला देते हैं कि आखिर क्यों चीन विनिर्माण और बुनियादी ढांचे में भारत से कहीं आगे है।
अगर यह नया बिल पास हो जाता है और भू-अधिग्रहण एक कम विवादपूर्ण मुद्दा बन जाता है, तो यह दिखाएगा कि भारत की प्रगति के रास्ते में लोकतंत्र नहीं सामाजिक न्याय आड़े आता है।
श्री रमेश मसौदे के एक शुरूआती बयान में कहते हैं, “भारत में भू-बाज़ार त्रुटिपूर्ण है, यहां ज़मीन हासिल करने वालों और ज़मीन के मालिकों के बीच शक्ति (और सूचना) का असंतुलन है।”  

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